Monday, May 21, 2012

महावीर-वाणी - हिंसा त्याज्य क्यों ?

महावीर-वाणी - हिंसा त्याज्य क्यों ?
सर्व जीवों का सर्व जीवों के साथ
पिता, पुत्र, माता इत्यादि
रूप सम्बन्ध अनेक भवों में हुआ है |
इसलिए मारने के लिए उद्दत हुआ मनुष्य
अपने सम्बन्धी को ही मारता है,
ऐसा समझना चाहिए |
- भगवती आराधना ७६३ 

Saturday, May 19, 2012

महावीर-वाणी - पाप


भगवान् महावीर -
जो पुरुष पाप करता है,
उसे निश्चयतः अपनी आत्मा प्रिय नहीं है,
क्योंकि आत्मा के द्वारा कृत कर्मों का फल आत्मा स्वयं ही भोगती है |
- उत्तराध्ययन ४५ : ३ 

Tuesday, May 1, 2012

संस्कार शुद्धि ही धर्म है

संस्कार शुद्धि ही धर्म है !!!
मैं संस्कारों की शुद्धि को धर्म कहता हूं |
मैं शरीर को कष्ट देने को धर्म नहीं कहता हूं |
---
रोगी कड़वी दवा पीता है, 
क्या अनिष्ट कर रहा है ?
ज्वर से पीड़ित मनुष्य स्निग्ध खाना खा रहा है, 
क्या इष्ट कर रहा है ?
- भगवान् महावीर 

नरक जाने का १ कारण - मांसाहार

भगवान महावीर की अहिंसा का पहला सूत्र है -
अनिवार्य हिंसा को नहीं छोड़ सको तो संकल्पी हिंसा को अवश्य छोडो |
भगवान ने नरक में जाने के ४ कारण बताए |
उनमें एक कारण है - मांसाहार |

श्रेष्ठ कौन ?

श्रेष्ठ कौन ?
अभयकुमार - भंते ! आप भिक्षु को श्रेष्ठ मानते हैं 
या गृहस्थ को ?
महावीर - मैं संयम को श्रेष्ठ मानता हूं |
संयमरत गृहस्थ और भिक्षु दोनों ही श्रेष्ठ हैं 
और असंयम रत गृहस्थ और भिक्षु दोनों ही श्रेष्ठ नहीं है |

फर्क - मनुष्य और देव का

फर्क - मनुष्य और देव का
-----------------------------
राजा दशार्णभद्र ने महावीर की वंदना के लिए सेना और वैभव के साथ प्रस्थान किया |
इन्द्र को उसका अहंकार-प्रदर्शन अनुचित लगा |
राजा को नीचा दिखाने के लिए इन्द्र ने अपना वैभव दिखाया |
दशार्णभद्र के अहंकार को चोट पहुंची |
उसने भगवान् महावीर से दीक्षा की प्रार्थना की |
इन्द्र का अहंकार पराजित हो गया |
( देवता प्रत्याख्यान नहीं कर सकते )

संघ-व्यवस्था

इस तरह 
१. इन्द्रभूति 
२. अग्निभूति
३. वायुभूति
४. व्यक्त 
५. सुधर्मा 
६. मंडित
७. मौर्यपुत्र
८. अकम्पित
९. अचलभ्राता 
१०. मेतार्य
११. प्रभास
सभी विद्वान आते गए और उनके संदेह का निरावरण होता गया |
सभी ने अपने शिष्यों के साथ प्रभु के पास दीक्षा ली |

संघ की स्थापना हुई |
इन्द्रभूति आदि गणधरों पर प्रभु की वाणी का विचार-प्रसार का दायित्व आ गया |
भगवान से तत्व के बारे में समझ कर फिर जन-मानस में समझाना था |
सभी गणधरों ने १२ सूत्रों( द्वादशांगी ) की रचना की |
उसमें प्रभु के दर्शन और तत्वों को प्रतिपादित किया |
भगवान ने संघ के नेतृत्व को ७ इकाइयों में बाँट दिया |
१. आचार्य
२. उपाध्याय
३. गणी 
४. गणधर
५. स्थविर
६. प्रवर्तक 
७. गणावच्छेदक
ये शिक्षा, सेवा, धर्म-प्रसार, उपकरण, विहार आदि कार्यों की व्यवस्था करते |
संघीय नेतृत्व का इतना विकास अन्य किसी धर्म-परंपरा में नहीं मिलता |
महावीर ने साधू की दिनचर्या निश्चित कर दी |
मुनि दिन के 
प्रथम प्रहर में स्वाध्याय,
दुसरे में ध्यान,
तीसरे में भोजन,
और चौथे में फिर स्वाध्याय करे |
इसी प्रकार रात्री के 
पहले प्रहर में स्वाध्याय 
दुसरे में ध्यान,
तीसरे में शयन 
और चौथे में फिर स्वाध्याय करे |
वस्त्र और भोजन के लिए भगवान ने कुछ व्यवस्थाएं की |
१. जो मुनि जित-लज्ज और जित-परिषह हो , वे विवस्त्र रहें |
२. जो मुनि ऐसा न कर सकें वो एक वस्त्र और एक पात्र रखें |
३. जो मुनि एक वस्त्र से काम न चला सकें वो २ वस्त्र रखें |
४. जो मुनि लज्जा को जीतने में समर्थ हो पर सर्दी नहीं सह सकते वे गर्मी में विवस्त्र हो जाएँ |
भगवान ने जब दीक्षा ली तब देवदुष्य वस्त्र उनके शरीर पर था |
बाद में भगवान विवस्त्र हो गए |
तीर्थंकर होने के बाद भी विवस्त्र रहे |
भगवान पार्श्व के शिष्य विवस्त्र रहने में अक्षम थे |
इसलिए भगवान ने दोनों रूपों को मान्यता दी |

वीर प्रभु से गौतम की पहली मुलाक़ात



हजारों लोग एक ही दिशा में जा रहे हैं |
इन्द्रभूति गौतम को कौतुहल हुआ |
खबर लगी श्रमण-नेता महावीर धर्म का उपदेश देंगे |
इन्द्रभूति को अपने ज्ञान पर गर्व था |
सोचा मैं जा कर पराजित कर दूंगा |
समवसरण में पहुंचे अहम् विनय में परिवर्तित हो गया |
मन अपनत्व की अनुभूति से भर गया |
वे साहस बटोर कर महावीर के सामने पहुँच गए |
प्रभु ने इन्द्रभूति को देखा |
मैत्री की सुधा को उडेलते हुए बोले 
- " गौतम इन्द्रभूति ! तुम आ गए ?"
अहं फिर जाग उठा |
" मुझे कौन नहीं जानता |
ये मेरा नाम-गोत्र और परिचय बताकर मुझे फंसाना चाहते हैं |
मैं इनके मायाजाल में नहीं फंसूगा |"
भगवान इन्द्रभूति के मन की भाषा समझकर बोले -
"इन्द्रभूति ! तुम्हे जीव के अस्तित्व के बारे में संदेह है |
क्यों ठीक है ना ?"
इन्द्रभूति के पैरों के नीचे से ज़मीन खिसक गयी |
प्रभु के चरणों में सारे संदेह दूर हो गए |
जहाँ सत्य, वहाँ संदेह को अवकाश कहां |

महावीर ने कहा -
गौतम ! अनुभव का क्षण उपलब्ध होना सहज नहीं है |
क्योंकि मनुष्य अतीत की स्मृति करता है और वर्तमान की उपेक्षा |
आज मैं तुम्हारे सामने हूं,
मेरे अनुभवों से स्वयं को लाभान्वित कर लो |
जो पूछना है, पूछ लो |
प्रमाद मत करो |

" गौतम ! आज जिन दिख नहीं रहे हैं,जो मार्गदर्शक है, वे एकमत नहीं है |"
- आनेवाली पीढ़ियों को इस कठिनाई का अनुभव होगा,
किन्तु अभी मेरी उपस्थिति में तुम समाधान ले लो |
महावीर के इस संबोधन से उद्बुद्ध गौतम ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी |
पूरा भगवती सूत्र गौतम के प्रश्नों से भरा हुआ है |
गौतम प्रश्न पूछते चले गए, 
महावीर समाहित करते चले गए |
गौतम प्रभु को कोटिशः नमन ...